From heritage walk to tribal art exhibition, discussion on literature in Bhopal Literature Festival

भोपाल साहित्य महोत्सव के दूसरे दिन की शुरुआत एक हेरिटेज वॉक से हुई, जो कमला पार्क से शुरू होकर कई महत्वपूर्ण ऐतिहासिक स्थलों से गुजरी, जिनमें प्राचीन जल निकाय, गोंड किले और इकबाल मैदान, सदर मंजिल और ताज-उल-मस्जिद जैसे प्रतिष्ठित स्थानीय स्थल शामिल थे।

जीवंत सांस्कृतिक माहौल को बढ़ाते हुए, यंगरंग में छात्रों के लिए एक चित्रकला प्रतियोगिता आयोजित की गई, जिसमें युवा कलाकारों को अपनी रचनात्मकता दिखाने के लिए प्रोत्साहित किया गया। इसी बीच, आदिरंग हॉल में जनजातीय कला पर एक प्रदर्शनी चल रही थी, जिसमें गोंड और बैगा कलाकारों की कृतियाँ प्रदर्शित की गईं, जो क्षेत्र की समृद्ध स्वदेशी विरासत को उजागर करती हैं।

विभिन्न संदर्भों में भारत/ औपनिवेशिक शासन से पहले भारत
प्रसिद्ध इतिहासकार शोनालीका कौल, जो ‘द ब्रिटिश एंड अदर एस्सेज’ (The British and Other Essays) की लेखिका हैं, ने डॉ. रीमा हूजा के साथ भारत के औपनिवेशिक काल से पहले की ऐतिहासिक पहचान पर चर्चा की। उन्होंने भारत की “अनेकता में एकता” की अवधारणा पर जोर दिया और बताया कि पुराणों से लेकर मध्यकालीन और आधुनिक इतिहासकारों तक ने भारत को कैसे देखा है और किस प्रकार से अपने लेखन में इसकी व्याख्या की है। उन्होंने एक श्लोक का उच्चारण भी किया था जो भारत की भौगोलिक विशेषता को बयान करता है:
“उत्तरं यत समुद्रस्य हिमाद्रेश्चैव दक्षिणम् |
वर्षं तद भारतं नाम भारती यत्र संततिः ||

इस श्लोक में भारत के भूगोल को दर्शाया गया है, जिसमें उत्तर में हिमालय से लेकर दक्षिण में समुद्र तक का विस्तार बताया गया है। उन्होंने मेगस्थनीज, अल-बिरूनी, इल्तुतमिश और चीनी यात्रियों के संदर्भ में भारत की सांस्कृतिक और ऐतिहासिक पहचान पर प्रकाश डाला। चर्चा में भारत की जातीय संरचना, भूगोल और ब्रिटिश शासन से परे भारत की समृद्ध ऐतिहासिक पहचान को भी शामिल किया गया।

इसी दौरान रंगदर्शनी सभागार में प्रकृति लेखन और इसका मूल्य विषय पर चर्चा करते हुए अनुराधा कुमार जैन और जाह्नवीज शर्मा के साथ बातचीत में पेड़ों का अपना देखने का तरीका होता है, जैसे पक्षियों का होता है। भोपाल एक खूबसूरत जगह है… हरी-भरी और ताज़ी। बादल देखना। बच्चों के पास संग्रह होते हैं… लेखक के पास कोई संग्रह नहीं था। बादलों का संग्रह करना… बादलों की तस्वीरें लेना… तारे और फिर चंद्रमा। हालांकि दिल्ली में तारे देखना दुर्लभ है। जीवन में एक नया आयाम जोड़ा। जैसे बच्चे बादलों में चेहरे और छवियां देखते हैं। लेखन की यात्रा शुरू हुई। पत्रिका में दशकों लग गए… कई वर्षों तक साप्ताहिक डायरी प्रविष्टियां। माँ द्वारा प्रकृति से परिचित कराया गया। वह समय जब स्थिरता और प्रकृति की बातचीत एक चर्चा नहीं थी। प्रकृति में जादू काम कर रहा है। कबूतर, अन्य वैज्ञानिक कारणों के साथ, शहरी क्षेत्रों में गौरैयों के Decline का कारण हो सकते हैं। परिवार स्मारकों का दौरा करने का बहुत शौकीन है। हमें प्रकृति को देखने के लिए विशेष रूप से कुछ स्थानों पर जाने की आवश्यकता नहीं है। पत्रिका में साझा किए गए सभी अनुभव एक शहरी क्षेत्र से लिखे गए हैं। तो इसमें कोई संदेह नहीं है कि प्रकृति आपको हर जगह पाती है।

वागर्थ – पुलिसिंग, खतरे और चुनौतियाँ
आईपीएस मीरन चड्ढा बोरवनकर ने सुनाई ‘मैडम कमिश्नर’ के पीछे की कहानियां
पूर्व आईपीएस अधिकारी मीरन चड्ढा बोरवनकर ने वागर्थ ऑडिटोरियम में अपनी पुस्तक “मैडम कमिश्नर” पर चर्चा की। इस सत्र का संचालन पूर्व आईपीएस अधिकारी राकेश अस्थाना ने किया। चर्चा के दौरान उन्होंने बताया कि यह किताब पुलिस को भ्रष्ट मानने की आम धारणा को तोड़ती है और पुलिस को अंतिम न्यायिक सहारा के रूप में प्रस्तुत करती है।
अस्थाना ने कहा, “यह पुस्तक युवाओं के लिए प्रेरणास्रोत है और यह दिखाती है कि पुलिसकर्मी भी इंसान होते हैं।”
बोरवनकर ने अपनी किताब के काल्पनिक किरदार चावघे के बारे में बताया कि इस चरित्र को लिखने के बाद उन्हें और प्रेरणा मिली, क्योंकि लोग उसे वास्तविक पुलिस अधिकारी मानने लगे थे। जब उन्होंने मैडम कमिश्नर शीर्षक के पीछे की कहानी साझा की, तो उन्होंने मजाकिया अंदाज में बताया कि उनके बेटे ने उन्हें आत्ममुग्ध (Narcissist) कहा क्योंकि उन्होंने अपनी किताब का नाम अपने पद के नाम पर रखा। लेकिन उन्होंने असली कहानी उजागर करते हुए बताया कि जब वे पुणे में तैनात थीं, तब दो लड़कियां पुलिस के पास छेड़खानी की शिकायत लेकर आईं। इसके बजाय, उनसे यह पूछा गया कि वे रात में कैफे में क्या कर रही थीं। नाराज होकर उन लड़कियों ने पुलिस डेस्क पर जोर से हाथ मारा और बार-बार कहा, “मैडम कमिश्नर!” इस घटना ने उन्हें झकझोर दिया, और उन्होंने उन लड़कियों की मदद की। यही वाकया उनकी किताब के शीर्षक की प्रेरणा बना। इस सत्र में बोरवनकर ने अपने पुलिस सेवा के अनुभव साझा किए और बताया कि उन्होंने कैसे अपनी लेखनी से उन्हें जीवंत किया।

दि मिडल ईस्ट इन क्राइसेस- लेफ्टिनेंट जनरल राज शुक्ला और एम.जे. अकबर

अंतरंग सभागार में आयोजित दि मिडल ईस्ट इन क्राइसेस में लेफ्टिनेंट जनरल राज शुक्ला और वरिष्ठ पत्रकार एम.जे. अकबर ने मध्य पूर्व में जारी संकट पर ऐतिहासिक और रणनीतिक दृष्टिकोण से चर्चा की और अपने विचार रखें। लेफ्टिनेंट जनरल शुक्ला ने कहा, “युद्ध की कोई सीमा नहीं होती,” और समझाया कि कैसे वहां के संघर्ष, धर्मयुद्ध और आधुनिक सत्ता संघर्ष क्षेत्र को प्रभावित कर रहे हैं। इस चर्चा में युद्ध के प्रभाव, बदलते अंतरराष्ट्रीय संबंधों और वैश्विक शक्तियों के साथ मध्य पूर्व के भू-राजनीतिक संबंधों का विश्लेषण किया गया।

अनुज पक्वासा ने ‘कुल चिह्न: शाही शक्ति के प्रतीक या अप्रचलित परंपरा?’ विषय पर व्याख्यान दिया

भोपाल: इतिहासकार और शोधकर्ता अनुज पक्वासा ने रंगदर्शिनी ऑडिटोरियम में कुल चिह्न: शाही शक्ति के प्रतीक या अप्रचलित परंपरा? विषय पर एक ज्ञानवर्धक प्रस्तुति दी, जिसमें उन्होंने इन प्रतीकों के ऐतिहासिक महत्व और आधुनिक युग में उनकी प्रासंगिकता पर प्रकाश डाला। पक्वासा, जिन्हें कुल चिह्नों में गहरी रुचि है, ने समझाया कि ये वंशावली और अधिकार के प्रतीक आज भी आधुनिक संदर्भों में देखे जा सकते हैं—जैसे कारों, तोपों और सिक्कों पर। शुरुआत में, कुल चिह्नों के निर्माण पर यूरोपीय प्रभाव अधिक था, लेकिन समय के साथ भारतीय सांस्कृतिक और कलात्मक तत्व भी इनमें शामिल हो गए। अपनी प्रस्तुति के दौरान, उन्होंने कुल चिह्नों को विभिन्न श्रेणियों में विभाजित किया, जिनमें जल और स्थलीय जीव, हथियार, प्राकृतिक प्रतीक और धार्मिक चिह्न शामिल थे। उन्होंने मध्य प्रदेश और भारत के अन्य राज्यों के सिक्के भी दिखाए, जिन पर कुल चिह्न अंकित किए गए थे। एक रोचक उदाहरण उन्होंने ग्वालियर से साझा किया, जहां सिंधिया परिवार के सिक्कों पर एक सांप अंकित था। उन्होंने इस किंवदंती का उल्लेख किया कि सिंधिया वंश के एक पूर्वज, जब वे साधन-संपन्न नहीं थे, तो एक सांप की पूजा करते थे क्योंकि उसने उनके परिवार के एक शिशु की रक्षा की थी। बाद में, यह श्रद्धा उनके शाही कुल चिह्न का हिस्सा बन गई। पक्वासा ने आधुनिक युग में भी कुल चिह्नों के उपयोग पर चर्चा की, उदाहरण के रूप में जगुआर और फेरारी जैसी ब्रांड्स का उल्लेख किया, जो पारंपरिक प्रतीकों को आधुनिकता के साथ जोड़ते हैं। उनकी प्रस्तुति ने यह दर्शाया कि कुल चिह्न आज भी सांस्कृतिक और प्रतीकात्मक रूप से महत्वपूर्ण हैं। उन्होंने यह भी खुलासा किया कि वह इस विषय पर एक पुस्तक लिखने की योजना बना रहे हैं, जिसे उन्होंने एक व्यापक, अनूठा और बेहद रोचक विषय बताया।

Vagarth – guru datt,cinema and literature

टेलीफोन ऑपरेटर के रूप में काम करने वाले गुरुदत्त बने सिनेमा के आइकन
गुरुदत्त, सिनेमा एंड लिटरेचर पर आयोजित सत्र में पंकज सक्सेना और पूनम सक्सेना ने गुरुदत्त के फिल्मी सफर पर अपने विचार रखे। पंकज सक्सेना ने कहा कि फिल्म निर्देशक और प्रोड्यूसर गुरुदत्त ही एक मात्र वह फिल्मी शख्सियत है जो प्रत्येक व्यक्ति तक आसानी से पहुंच सके। सिनेमा का जो डायरेक्टर है वह जो सोचता है उसे सीधे वह स्क्रीन पर लाता है। अच्छी बात यह है कि हमारे यहां नोबेल, शॉर्ट स्टोरी, पेंटिंग, कविता, इवेंट आदि पर बेस्ड फिल्मों का निर्माण होता है। पंकज ने कहा कि
गुरुदत्त, एक प्रसिद्ध भारतीय फिल्म निर्माता और एक्टर थे, जो कैमरे के क्लोज-अप, लाइटिंग तकनीक और भावनाओं के हृदयस्पर्शी चित्रण के अपने अनूठे उपयोग के लिए जाने जाते थे। गुरु दत्त ने 16 फिल्मों में एक्टिंग से लोगों का मन मोह लिया और 8 हिंदी फिल्मों का निर्देशन किया। जिनमें 1957 में आई ‘प्यासा’ भी शामिल है। इसे 100 सर्वश्रेष्ठ फिल्मों में सूचीबद्ध भी किया गया है। 9 जुलाई 1925 को पैदा हुए गुरु दत्त 39 साल की उम्र में ही दुनिया को अलविदा कह गए। पूनम सक्सेना ने बताया कि 1942 में गुरु दत्त ने अल्मोड़ा में उदय शंकर के नृत्य और कोरियोग्राफी स्कूल में अपनी पढ़ाई शुरू की। इसके बाद उन्हें कोलकाता में लीवर ब्रदर्स फैक्ट्री में एक टेलीफोन ऑपरेटर के रूप में नौकरी मिल गई, लेकिन जल्द ही उन्होंने नौकरी छोड़ दी। कुछ वक्त के बाद वो मुंबई आ गए, जिसके बाद गुरु दत्त के चाचा ने उन्हें तीन साल के अनुबंध के तहत पुणे में प्रभात फिल्म कंपनी में नौकरी दिलवाई। यहीं पर उनकी दोस्ती अभिनेता रहमान और देव आनंद से हुई। पूनम सक्सेना ने कहा कि गुरुदत्त देश के सबसे महान फिल्म निर्माताओं में से एक बन गए। ‘कागज के फूल’ (1959), ‘चौदहवीं का चांद’ (1960) और ‘साहिब बीबी और ग़ुलाम’ (1962) जैसी उनकी फिल्में भारतीय सिनेमा में क्लासिक मानी जाती हैं।

Antarang – tibet, India and china
‘तिब्बत, भारत और चीन: पहचान और राजनीति’ दोपहर 2.30 बजे अंतरंग सभागर

‘अंतरंग’ सभागार में आयोजित ‘तिब्बत, भारत और चीन: पहचान और राजनीति’विषय पर लेफ्टिनेंट जनरल पीआर शंकर, दिलीप सिन्हा और अनिल वाधवा ने चर्चा के दौरान लेफ्टिनेंट जनरल पीआर शंकर ने स्लाइड शो के माध्यम से तिब्बत की भौगोलिक और राजनीतिक स्थिति का विश्लेषण किया और इसके वैश्विक प्रभावों पर प्रकाश डाला। उन्होंने बताया कि भारत तिब्बत को चीन के साथ एक ‘बफर ज़ोन’ के रूप में देखता है। तिब्बत में स्वतंत्रता या स्वायत्तता का सवाल भारत के लिए महत्वपूर्ण है। दलाई लामा के ‘मध्य मार्ग’ के तहत एक शांतिपूर्ण समाधान की आशा जताई गई। चीन तिब्बत को अपने अभिन्न हिस्से के रूप में मानता है। तिब्बत चीन के लिए शिनजियांग और अन्य क्षेत्रों से संपर्क का एक प्रमुख माध्यम है। खनिज संसाधनों और ऊर्जा सुरक्षा के लिए तिब्बत का रणनीतिक महत्व है। तिब्बत को एशिया का ‘वाटर टॉवर’ भी कहा जाता है। इस चर्चा ने इस बात को रेखांकित किया कि तिब्बत, भारत और चीन के बीच भू-राजनीतिक संबंधों का महत्वपूर्ण केंद्र है। भारत और चीन के हितों के बीच तिब्बत की स्थिति आने वाले वर्षों में क्षेत्रीय स्थिरता और सुरक्षा को प्रभावित करेगी। इस चर्चा के दौरान दिलीप सिन्हा ने कहा कि भारत के लिए तिब्बत इसलिए भी जरूरी है क्योंकि हमारा सबसे बड़ा पड़ोसी देश है। यहां से स्कॉलर और मॉन्क सबसे ज्यादा है। कैलाश पर्वत भी यहीं पर मौजूद है। भारत और चीन के रिलेशन में तिब्बत की बात करें तो आजादी को लेकर चर्चा हमेशा होती है।

Rangdarshani- Mandu, legend of roopmati
मांडू का किला प्राचीनतम दीवारों, पत्थरों में यादों का खजाना सुरक्षित रखता है
‘मांडू लिजेंड ऑफ रुपमती एंड बाज बहादुर’ सत्र में मालती रामचंद्रन ने डॉ. नेहा जैन से चर्चा की। इस दौरान मालती रामचंद्रन ने मांडू पर किये गये रिसर्च और अपनी पुस्तक के बारे में विस्तार से बताया। मालती ने कहा, “लोगों को इतिहास बहुत ही बोरिंग विषय लगता है उसका कारण यह भी है कि उसमें बहुत सारी तारीख, सन्, डेटा आदि से जुड़ी जानकारियों को ध्यान में रखना होता है। लेकिन मैंने इतिहास को खुद से दूर नहीं होने दिया और इस पर पूरे इंट्रेस्ट के साथ कार्य किया। उन्होंने कहा कि मैं मूलरूप से बैंगलोर से हूं और मुझे घूमना बहुत अधिक पसंद है। ऐसे में जब मैं इंदौर, महेश्वर और उज्जैन घूमने के लिये आई तो मुझे जानकारी मिली कि यहां से कुछ दूरी पर मांडू का किला है। किले का नाम सुनते ही मेरा एक्साइटमेंट बढ़ा और मैंने वहां जाने का फैसला किया। मांडू और बाज बहादुर की यदि हम बात करते हैं तो यह 16वीं शताब्दी की बात है। मुझे यहां की ऐतिहासिक धरोहरें, किले की खुबसूरती और नक्काशीदार कलाओं ने काफी मोहित किया। यकीन मानिये यह मेरा अब तक का सबसे अच्छा अनुभवों वाला ट्रिप रहा है।“ मालती रामचंद्रन ने कहा कि यह छोटा सा शहर अपनी ऐतिहासिक प्रेम कहानी में इतना डूबा हुआ है कि अब यही इसकी पहचान बन गया है। विंध्य पर्वत श्रृंखला के ऊपर मध्यप्रदेश के मध्य में स्थित मांडू का यह किला अपनी प्राचीनतम दीवारों, पत्थरों और अपने लोगों की यादों में क़ीमती कहानियों का खजाना सुरक्षित रखता है। उन्होंने बताया कि मांडू की ऐतिहासिक जड़ें छठी शताब्दी में मिलती हैं जब यह गुप्त साम्राज्य की चौकी के रूप में कार्य करता था। मालती ने बाज बहादुर और रुपमती पर चर्चा करते हुये कहा कि मुगलों के इतिहास में मालवा के सुल्तान बाज बहादुर खान और रूपमती की कहानी भी दर्ज हुई। रूपमती अपनी सुरीली आवाज और सुंदरता के लिए भी जानी गईं। जब वो गाती थीं तो हर तरफ खामोशी छा जाती थी। बाज बहादुर ने महल में दो गुंबदों वाला पवेलियन बनाया जहां से रूपमती नर्मदा नदी को देखा करती थीं।

‘दि मिडल ईस्ट इन क्राइसेस’- लेफ्टिनेंट जनरल राज शुक्ला और एम.जे. अकबर

अंतरंग सभागार में आयोजित ‘दि मिडल ईस्ट इन क्राइसेस’ में लेफ्टिनेंट जनरल राज शुक्ला और वरिष्ठ पत्रकार एम.जे. अकबर ने मध्य पूर्व में जारी संकट पर ऐतिहासिक और रणनीतिक दृष्टिकोण से चर्चा की और अपने विचार रखें। लेफ्टिनेंट जनरल शुक्ला ने कहा, “युद्ध की कोई सीमा नहीं होती,” और समझाया कि कैसे वहां के संघर्ष, धर्मयुद्ध और आधुनिक सत्ता संघर्ष क्षेत्र को प्रभावित कर रहे हैं। इस चर्चा में युद्ध के प्रभाव, बदलते अंतरराष्ट्रीय संबंधों और वैश्विक शक्तियों के साथ मध्य पूर्व के भू-राजनीतिक संबंधों का विश्लेषण किया गया।

‘रॉक आर्ट ऑफ लद्दाख’: पत्थरों में उकेरे गए लद्दाख के प्राचीन संदेश

रंगदर्शिनी सभागार में हुए ‘रॉक आर्ट ऑफ लद्दाख’ सत्र में ट्रैवल जर्नलिस्ट और फोटोग्राफर आतुषी देशपांडे, जो ‘स्पीकिंग स्टोन्स: सिम्बॉलिक एंड मिस्ट्रीयस रॉक आर्ट ऑफ लद्दाख’ की लेखिका हैं, ने लद्दाख और भीमबेटिका की प्राचीन चित्रकला पर अपने अनुभव साझा किए। स्टेज 4 कैंसर का सामना कर रही ऑथर ने बताया कि लद्दाख की चट्टानों पर बने इन शिलाचित्रों को सही रूप में कैद करना कितना चुनौतीपूर्ण था। आतुषी देशपांडे एक मिशाल है जो कहती है कि जीवन में ऐसी कोई चुनौती नहीं है जिसे ओवरकम न किया जा सके. आज हमारे समक्ष यह बड़ी चुनौती है कि किस तरह से इन मोतियों कओ संजोया जाए। उन्होंने इन चित्रों के ऐतिहासिक महत्व और प्रतीकात्मकता को उजागर किया, जिनमें से कुछ तो हजारों साल पुराने हैं। उनकी इस अनूठी शोध को माउंटेन बुक रिकॉर्ड्स में भी मान्यता मिली है। उन्होंने लद्दाख की शिला कला और भीमबेटिका की प्राचीन गुफाओं की कला में अंतर बताते हुए मानव कलात्मक अभिव्यक्ति के विकास पर रोशनी डाली।

‘तीरों की शैय्या पर भीष्म पितामह’: महाभारत के पात्र को समझना

कुश भार्गव (लेखक- ‘भीष्म पितामह ऑन थे बेड ऑफ एरोस्’) और डॉ. मीनाक्षी पावा ने महाभारत के प्रमुख पात्र भीष्म पितामह और उससे जुड़ी नैतिक शिक्षाओं पर गहन चर्चा की। भीष्म पितामह अपने संपूर्ण जीवन में धर्म का पालन करने वाले व्यक्ति थे, लेकिन द्रौपदी के चीरहरण के समय उनकी चुप्पी उनके भाग्य का निर्णायक मोड़ बन गई, जिससे उन्हें तीरों की शैय्या पर लेटना पड़ा। चर्चा में गुस्से के विनाशकारी प्रभावों पर भी जोर दिया गया। उदाहरण के रूप में दुर्योधन को रखा गया, जो अपने क्रोध के कारण केवल द्रौपदी की हंसी की वजह से अपना सब कुछ खो बैठा। 99 भाइयों की मृत्यु और हस्तिनापुर का पतन इसी का परिणाम था। स्पीकर्स ने कहा कि महाभारत का हर पात्र हमें महत्वपूर्ण नैतिक, धार्मिक और दार्शनिक सीख देता है, जो आज भी प्रासंगिक है।

पुरुषों और महिलाओं का प्रेम है अलग
सत्र “द अल्योर ऑफ़ रोमांस नॉवेल्स” के दौरान अनुराधा कुमार जैन ने अपनी पूर्व-स्वतंत्रता काल के लाहौर पर आधारित उपन्यास का उल्लेख किया। यह उपन्यास दो महिलाओं की कहानी को दर्शाता है।
लेखिका ने बताया कि कैसे मुख्य पात्र अपने परिवार और सामाजिक स्थिति के बावजूद जीवन से असंतुष्ट महसूस करती हैं। कहानी 1929 से शुरू होती है। एक महिला, जो दो बच्चों की माँ है, एक मुस्लिम पुरुष के साथ विवाहेतर संबंध में चली जाती है, जबकि दूसरी महिला अपने करियर में सफल होती है। लेकिन उनके जीवन की घटनाएं उन्हें भावनात्मक रूप से टूटे और अकेलेपन की ओर धकेल देती हैं। कहानी उनके संघर्षों और इन कठिनाइयों से उबरने की यात्रा को दर्शाती है। लेखिका के अनुसार, पुरुषों और महिलाओं के लिए प्रेम अलग होता है। महिलाएं भावनात्मक रूप से अधिक जुड़ जाती हैं, जबकि पुरुषों के पास बाहरी दुनिया में करने के लिए बहुत कुछ होता है। यह उपन्यास उस दौर को दर्शाता है जब लाहौर में महिलाओं के लिए कार्य संस्कृति बहुत सीमित थी। लेखिका को लगा कि यह कहानी बताई जानी चाहिए। इसके अलावा, यह उपन्यास इतिहास की एक बेहतरीन कक्षा की तरह है, जिसमें उस समय की राजनीतिक परिस्थितियों के कई संदर्भ दिए गए हैं

हमारे पूर्वजों की आवाज़ (Voices of our Ancestors)

अंतरंग सभागार में आयोजित सत्र दि वाइल्ड वुमन ऑफ इंडिया (The wild women of India: Arundhati Subramaniam) में अरुंधति सुब्रमण्यम ने डॉ. अल्का पांडे के साथ बातचीत की, जहां उन्होंने भारतीय इतिहास की सशक्त महिलाओं का उल्लेख किया। जब उन्होंने अपनी किताब को खोला, तो उन्हें विभिन्न महिलाओं के चेहरे नजर आए। उन्होंने उन आवाजों को सुनने की कला पर जोर दिया जो सुनी जाने की मांग करती हैं—हमारे पूर्वजों की आवाज़। यह किताब उन साहसी महिलाओं के समूह के बारे में है जो असुविधाजनक प्रश्न पूछने से नहीं कतरातीं। यह किताब पूर्वजों की सक्रिय पुनर्खोज (retrieval) पर आधारित है। इसमें पूरे देश के विभिन्न सक्रिय और विविध क्षेत्रों से आई 56 रहस्यमयी (mystiques) महिलाओं को समेटा गया है। जब लेखक से इन महिलाओं के चयन के बारे में पूछा गया, तो उन्होंने बताया कि यह यात्रा उनके जीवन के 5 सालों की जिम्मेदार यात्रा रही, जो कभी खत्म न होने वाली लगती थी। उन्होंने शुरुआत में भारत के अलग-अलग क्षेत्रों से 20 असाधारण महिलाओं को चुना, जो जितनी संभव हो सके उतनी विविध थीं—सूफियों से लेकर तांत्रिकाओं और भक्ति मार्ग की महिलाओं तक। लेखक ने इस किताब में ऐसी महिलाओं को शामिल करना चाहा, जिन्होंने पारंपरिक जीवनशैली से हटकर एक अलग रास्ता चुना।

वागार्थ – गोल्फ: द इनर गेम
यह समझें कि क्या करना है, यहां अपार संभावनाएं हैं
पैनलिस्ट अमनदीप जोही और नानकी जे चड्ढा ने ओमर के साथ एक सत्र में बातचीत की, जहां उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि भोपाल भारत की गोल्फिंग राजधानी बन सकता है। उन्होंने कहा कि गोल्फ ने उन्हें बहुत कुछ दिया है और अब वे इस खेल से प्यार करने लगे हैं। भोपाल को गोल्फ हब बनने की अपार संभावनाएँ है. पैनलिस्ट्स ने अपने शौकिया से पेशेवर बनने तक की यात्रा और अनुभव साझा किया। उन्होंने यह भी बताया कि चंडीगढ़ एक बहुत ही खेल-प्रेमी शहर है, जहां के लोग हर तरह के खेलों में रुचि रखते हैं, और वहीं से वे उभरे हैं। उन्होंने महान मिल्खा सिंह और कपिल देव को अपनी प्रेरणा बताया। पैनलिस्ट नानकी ने अपने स्पोर्ट्स साइकोलॉजिस्ट बनने की यात्रा साझा की, जो उन्होंने 12-13 साल तक राष्ट्रीय टूर पर खेलने के बाद चुनी। उन्होंने युवा खिलाड़ियों को मानसिक रूप से मजबूत बनने और “सेल्फ टॉक” के जरिए दबाव को कम करने की सलाह दी, क्योंकि यह किसी भी एथलीट के लिए बेहद जरूरी है। पैनलिस्ट्स ने यह भी कहा कि भारत में अभी भी खेलों के लिए पर्याप्त इंफ्रास्ट्रक्चर की कमी है। हालांकि, प्रधानमंत्री यह सुनिश्चित कर रहे हैं कि खेलों को किसी भी तरह की सीमाओं का सामना न करना पड़े और आने वाले ओलंपिक्स के लिए भारत भी बोली लगा रहा है।

अंडमान और निकोबार द्वीप: फिरोजी शांति से परे
सत्र “अंडमान और निकोबार द्वीप, बियॉन्ड टरक्वॉइज़ ट्रैंक्विलिटी” में केशा चंद्रा, सीमा वर्मा और रुपिंदर ब्रार ने निहारिका सिंह के साथ बातचीत की। इस चर्चा का केंद्र अंडमान और निकोबार द्वीपों के चित्रात्मक इतिहास पर था।”व्हेन टरक्वॉइज़ वॉटर्स टर्नड डार्क” नामक यह पुस्तक 6 अध्यायों में विभाजित है और तीन चरणों में बंटी हुई है। लेखकों ने बताया कि अंडमान की खोज ब्रिटिशों ने नहीं की थी, बल्कि यह बहुत पहले ही खोजा जा चुका था और इसका वर्णन मार्को पोलो ने किया था।
इस पुस्तक में ब्रिटिशों द्वारा अंडमान पर कब्जे और वहां बनाए गए विभिन्न बुनियादी ढांचे का विवरण दिया गया है, जिसमें प्रिंटिंग प्रेस, चर्च, वन अधिकारियों के आवास, द्वीप के दक्षिणी भाग में एक छोटा जेल आदि शामिल हैं। साथ ही, यह पुस्तक अंडमान पर चीनी आक्रमण और पोर्ट ब्लेयर में हुए निर्माण कार्यों की जानकारी भी देती है।इस सत्र में “चौर द्वीप” का विशेष रूप से उल्लेख किया गया, जिसे अपनी सुंदरता के लिए अवश्य देखा जाना चाहिए। लेखकों ने इन द्वीपों पर निवास करने वाली जनजातियों, उनके जीवनशैली, स्कूलों और अन्य जनजातीय संस्थानों के बारे में भी विस्तार से बताया। पूरी प्रस्तुति संक्षिप्त पीपीटी (PPT) के रूप में दी गई थी, जिसमें अंडमान और निकोबार द्वीपों के इतिहास, संस्कृति और संरचनाओं को दर्शाया गया।

बहुआयामी किशोर कुमार
सत्र “द मल्टी-फेसिटेड किशोर कुमार” एक संगीतमय और संवादात्मक चर्चा थी, जिसमें किशोर कुमार के जीवन से जुड़े रोचक और अनसुने किस्से साझा किए गए।यह सत्र हास्य से भरा हुआ था, जहां लेखकों ने किशोर कुमार के बचपन और शुरुआती जीवन की कई घटनाओं का जिक्र किया। एक मज़ेदार घटना यह थी कि जब किशोर कुमार 5 साल के थे, तब उनका गला खराब हो गया था। एक दिन, गलती से वह रसोई में किसी चीज़ से चोटिल हो गए और ज़ोर-ज़ोर से रोने लगे। आश्चर्यजनक रूप से उनका गला ठीक हो गया और वह फिर से रियाज़ करने लगे। यह भी कहा जाता है कि उनकी आवाज़ सुनकर जानवर भी ठहर जाते थे।लेखकों ने यह भी बताया कि किशोर कुमार अपने बड़े भाई अशोक कुमार पर निर्भर नहीं थे, जबकि उस समय अशोक कुमार एक सफल अभिनेता थे। इसके अलावा, चर्चा में किशोर कुमार और मधुबाला की शादी का भी जिक्र हुआ, जो 1960 के दशक की शुरुआत में हुई थी। उस समय मधुबाला का स्वास्थ्य ठीक नहीं था, और किशोर कुमार को उनके इलाज के दौरान कई संघर्षों का सामना करना पड़ा। लेखकों ने किशोर कुमार की पहली पत्नी और उनके चार विवाह (रूमू, मधुबाला, योगिता और लीना) के बारे में भी बात की। दिलचस्प बात यह थी कि उन्होंने सभी पत्नियों से दो-दो बार शादी की थी। इस पूरे सत्र में किशोर कुमार के जीवन से जुड़े अनसुने प्रसंगों और महत्वपूर्ण घटनाओं को साझा किया गया, जिससे उनकी व्यक्तित्व की बहुआयामी झलक सामने आई।

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