ग्राम कालाकुंड की परम्परागत मिठाई “कलाकंद बनी ब्रांड

इंदौर के पास पहाड़ियों से घिरे कालाकुंड गांव की महिलाओं ने मजबूरी में शुरु किये गये रोजगार को अपनी मेहनत से शहरों तक पहुंचाकर ब्रांड बना दिया। आज इंदौर के पास का यह गांव अपनी खूबसूरती से ज्यादा वहाँ के कलाकंद की वजह से प्रसिद्ध हो चुका है। यहां कलाकंद बनाने से लेकर बेचने तक की सारी कमान महिलाओं के हाथ में है। कम आबादी वाले इस गांव में पहुंचने के लिये एक ही साधन है मीटर गेज ट्रेन। ट्रेन से कालाकुंड पहुंचते ही यहां छोटे से स्टेशन पर गाड़ी रुकते ही प्लेटफॉर्म पर दो-तीन हाथ ठेलों में लोग पलास के पत्तों के ऊपर सफेद रंग की खाने की चीज बेचते दिख जाते हैं। यही हैं यहां के गिने-चुने रोजगार में से एक कालाकुंड का प्रसिद्ध कलाकंद।

          कालाकुंड में आजीविका के नाम पर अगर कुछ है तो लकड़ी काटकर बेचना और कुछ दुधारु पशु। दूध बाहर भेजने के लिये ट्रेन पर ही निर्भर रहना पड़ता था। परेशानी देख गांव के पशुपालक परिवारों ने दूध का कलाकंद बनाकर स्टेशन पर बेचना शुरु किया। चुनिंदा ट्रेन गुजरने की वजह से ये रोजगार भी सिर्फ पेट भरने तक ही सीमित रहा।  मगर पिछले दो साल में जो हुआ वो चौंकाने वाला था। गले तक घूँघट करके झाड़ू-बुहारी और घर का चूल्हा चौका करने वाली गांव की कुछ महिलाओं ने अपने पुरूषों के पुश्तैनी व्यवसाय की कमान को अपने हाथों में ले लिया। दस महिलाओंका समूह बनाया और इसे संगठित व्यवसाय की शक्ल दे दी। गांव की महिलाओं ने कालाकुंड के कलाकंद को एक ब्रांड बनाया। अच्छी पैकेजिंग शुरू की, पलास के पत्तों की जगह अब सुंदर बॉक्स ने ले ली। महिला समूह ने अब ये बॉक्स बंद कलाकंद इंदौर-खंडवा रोड के कुछ खास ढाबों और होटलों पर बिक्री के लिये रखा। परिणाम यह हुआ कि महिला समूह जितना भी कलाकंद बनाता है, वह सब हाथों हाथ बिक जाता है।महिलाओं को ये राह दिखाई इलाके में जल संग्रहण का काम कर रही एक संस्था नागरथ चेरीटेबल ट्रस्ट ने। ट्रस्ट के प्रोजेक्ट प्रभारी सुरेश एमजी ने जब कलाकंद का स्वाद चखा तो महिलाओं को सलाह दी कि वे अपने इस हुनर को बड़े व्यवसाय में तब्दील करें। ट्रस्ट की मदद से जब महिलाओं का व्यवसाय चलने लगा और डिमांड बढने लगी तो इंदौर जिला प्रशासन ने महिलाओं की मदद के लिये इस व्यवसाय को आगे बढाने की रुपरेखा तैयार की। समूह को तत्काल डेढ़ लाख रुपये का लोन दिया गया। लोन की रकम हाथ आते ही मानों समूह की उडान को पंख लग गये। कलाकंद बनाने के लिये बड़े बर्तन, रसोई गैस आ गई। पैकेजिंग मटेरियल में सुधार होने लगा। विज्ञापन और प्रचार के लिये बड़े-बड़े होर्डिंग लग गये। अब महिलाएं आसपास के इलाके से भी अच्छी गुणवत्ता का दूध खरीदने लगी। जिला प्रशासन ने महिलाओं को प्रोत्साहित करने के लिये गाय एवं भैंस दी। इससे वो खुद दूध का उत्पादन करने लगी। अब पहाडों के बीच छोटे से स्टेशन पर बिकने वाला कलाकंद हाईवे पर आ चुका है। महिलाओं की बढ़ती रुचि को देखते हुऐ जिला प्रशासन ने हाईवे पर दो साल में एक के बाद एक तीन स्टोर खोल दिये। जहां बस रुकवाकर यात्री कलाकंद खरीदते हैं। हाल ही में इंदौर के दो प्रसिद्ध पुराने ‘खजराना गणेश” और ‘रणजीत हनुमान” मंदिर पर कलाकंद स्टोर्स खोले जा चुके हैं। समूह की अध्यक्षा प्रवीणा दुबे और सचिव लीलाबाई ने बताया, हमें तो एक समय यकीन करना ही मुश्किल हो रहा था कि गांव का कलाकंद चौरल के मुख्य मार्ग की दुकान पर बिक रहा है। मगर आज जब इंदौर जाकर हमारे स्टोर पर लोगों को कलाकंद खरीदते हुए देखते हैं, तो खुशी की कोई सीमा नहीं रहती।समूह के स्वादिष्ट मिठाई की माँग देखते हुऐ अभी और उत्पादन बढ़ाने की तैयारी चल रही है। एक क्विंटल मिठाई हर दिन बनकर यहां से अलग-अलग स्टोर्स पर बेची जा रही है। डिमांड लगातार बनी हुई है। आज इलाके की पहचान दूर-दूर तक होने लगी है।

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