चंबल की विधानसभा सीटें दलित समाज प्रभावितः विजयी प्रत्याशी भी पाता है दूसरे-तीसरे नंबर के उम्मीदवार से कम वोट

कर्नाटक विधानसभा चुनाव के बाद अब मध्य प्रदेश में चुनावी सरगर्मी बढ़ेंगी। यहां का चुनावी समीकरण उत्तर में यूपी-बिहार, दक्षिण में महाराष्ट्र से प्रभावित रहता है। उत्तर में चंबल की 13 सीटें हैं जो उत्तर प्रदेश के जातीय समीकरणों में फंसी रहती हैं और यहां का दलित समाज भाजपा और कांग्रेस दोनों की हार-जीत पर असर डालता है। कई विजयी प्रत्याशियों को वहां दूसरे और तीसरे नंबर रहने वाले प्रत्याशी काफी कम वोट मिलते हैं लेकिन यह लोकतंत्र है जिसे सबसे ज्यादा वोट मिलते हैं वही जीतता है। आईए समझिए चंबल विधानसभा सीटों के बारे में।

मध्य प्रदेश के तीन जिले श्योपुर, मुरैना और भिंड चंबल क्षेत्र में आते हैं जो कभी बीहड़ में डकैतों की समस्या से जूझता रहता था। यहां की सीमा उत्तर प्रदेश और राजस्थान के कुछ हिस्सों से लगी है जिससे वहां के जातीय समीकरण यहां भी चुनाव में दखल रखते हैं। बहुजन समाज पार्टी हो या उसी विचारधारा के दूसरे छोटे-मोटे दल, तीनों जिलों के चुनावी समीकरणों को प्रभावित करते हैं। यहां तीन जिलों में 13 विधानसभा सीटें हैं।
2018 में 10 सीटों से कांग्रेस 2020 में सात पर सिमटी
चंबल के तीन जिलों में 13 विधानसभा सीटों में से 2018 के चुनाव में कांग्रेस को खासी बढ़त मिली थी और यहां उसने दस सीटों पर जीत हासिल की थी। इनमें श्योपुर, सबलगढ़, जौरा, सुमावली, मुरैना, दिमनी, अंबाह, मेहगांव, गोहद व लहार हैं। मगर ज्योतिरादित्य सिंधिया के भाजपा जाने पर यह समीकरण कांग्रेस के लिए नुकसानदेह साबित हुआ और 2020 के उपचुनाव में कांग्रेस को आघात लगा। यहां की अंबाह व मेहगांव सीटों को सिंधिया के साथ भाजपा में गए भाजपा नेताओं ने जीत दर्ज की और जौरा विधानसभा सीट के उपचुनाव में भाजपा ने कांग्रेस से सीट को छीन लिया।
दलित समाज का असर
चंबल क्षेत्र में दलित वर्ग चुनावी राजनीति में काफी असर डालता है। यह वर्ग अपने वोट को किसी राष्ट्रीय राजनीतिक दल के आधार पर नहीं देता बल्कि अपने वर्ग या समाज के प्रति संवेदनशील रुख रखने वाले व्यक्ति को देने में विश्वास करता है। यही वजह है कि इस वर्ग के वोट के कारण कई बार विजयी प्रत्याशी को लाभ मिलता है और वह प्रतिद्वंद्वी के वोट बंटने से जीत जाता है। विजयपुर, सबलगढ़, जौरा, सुमावली, मुरैना, दिमनी, अंबाह, भिंड, लहार सीटों पर यह ज्यादा दिखाई देता है। इससे बड़े से बढ़े नेता हार जाते हैं। इसी वजह से पूर्व मंत्री रुस्तम सिंह, रामनिवास रावत जैसे दिग्गजों को हार का सामना करना पड़ चुका है तो राकेश मावई, जौरा सीट के सूबेदार सिंह राजौधा इसी वजह से जीतकर विधानसभा भी पहुंच चुके हैं।

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