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विलीनीकरण आंदोलन के नेता ठाकुर लाल सिंह भोपाल से भेजे गए संविधान सभा, जाने कब-क्या हुआ

भारत के संविधान को लागू हुए 73 साल पूरे हो चुके हैं। संविधान बनाने वाली संविधान सभा में भोपाल रियासत से विलीनीकरण आंदोलन के नेता ठाकुर लाल सिंह को भेजा गया था। मगर दुर्भाग्य से उनके नाम पर देर से फैसला हुआ और इसका क्या असर पड़ा पढ़िये हमारी खास रिपोर्ट।
भोपाल स्वातंत्र्य आंदोलन स्मारक समिति के संस्थापक सचिव डॉ. आलोक गुप्ता का कहना है कि भारत का संविधान बनाने वाली संविधान सभा में भोपाल रियासत का योगदान नहीं रहा क्योंकि संविधान सभा में यहां से नाम भेजे जाने में देरी हो गई थी। देरी के पीछे भोपाल रियासत के नवाब और उनका साथ देने वाले लोगों का षड़यंत्र रहा। भोपाल रियासत के एक जून 1949 में भारत में विलय होने के बाद संविधान सभा के लिए विलीनीकरण के विरोध में नवाब का साथ देने वाले चतुरनारायण मालवीय का नाम भेजे जाने की चर्चा चली थी।
पटेल के हस्तक्षेप के बाद विलीनीकरण के नेता का नाम गया
आलोक गुप्ता बताते हैं कि संविधान सभा के लिए विलीनीकरण के विरोधी का नाम भेजने की तैयारी का जब सरदार वल्लभ भाई पटेल को पता चला तो उन्होंने अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के तत्कालीन महासचिव वेंकट राव को 14 व 27 अक्टूबर 1949 पत्र लिखे और नाराजगी जताई। इसका नतीजा यह हुआ है कि चतुरनारायण मालवीय का नाम संविधान सभा के लिए नहीं भेजकर ठाकुर लाल सिंह का नाम फाइनल हुआ। हालांकि नाम भेजे जाने में देरी की वजह से ठाकुर लाल सिंह संविधान सभा में अपना योगदान हीं दे सके क्योंकि तब तक संविधान निर्माण का कार्य लगभग पूरा हो चुका था। 24 नवंबर 1049 को 11वें सत्र में भारतीय संविधान के अंतिम ड्राफ्ट को अनुमोदित कर दिया गया।
जानें कौन थे ठाकुर लाल सिंह
भोपाल के विलीनीकरण आंदोलन के प्रणेता माने जाने वाले पत्रकार भाई रतनकुमार के पुत्र हैं डॉ. आलोक गुप्ता। उन्होंने बताया कि भाई रतन कुमार के गुरू थे ठाकुर लाल सिंह। वे 1889 में भरतपुर में जन्मे थे और किशोरावस्था के समय भोपाल रियासत में आ गए थे। ठाकुर लाल सिंह ने इंदौर के क्रिश्यन कॉलेज से बीए ऑनर्स की पढ़ाई की और भोपाल रियासत की सुल्तान जहां बेगम द्वारा राजसी परिवारों के शिक्षण के लिए स्थापित किए गए अलेक्जेंड्रिया स्कूल के प्रधानाचार्य रहे। 1933 में नवाब से वैचारिक मतभेदों के चलते स्कूल से इस्तीफा दे दिया और हिंदू महासभा की भोपाल इकाई की स्थापना में सक्रिय हो गए। वे हिंदू महासभा के पहले अध्यक्ष भी रहे। नवाब से मतभेदों के चलते वे 1940 से 1946 के बीच विदिशा चले गए जहां शिक्षण कार्य किया और आजादी के पहले फिर भोपाल लौटे।
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