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कलाकार के संघर्षों से रूबरू कराता नाटक बंदिशें की दी गई प्रस्तुति

कलाकार अपने ऊपर पड़ रहे तमाम दबावों से कैसे निकले? एक कलाकार किन संघर्षों से जूझता है? कला को रोकने वाली कौन सी बंदिशें होती हैं और उनसे कैसे पार पाना है? ऐसे कुछ सवालों पर गायन कला के माध्यम से नाट्य प्रस्तुति‘बंदिश 20 से 20,000 हर्ट्ज़’ अपना दृष्टिकोण प्रस्तुत किया।
रवींद्र भवन में चल रहे विश्व रंग में नाटक की शुरुआत इस प्रकरण से होती कि भारत की आजादी के सत्तर साल के मौके पर एक नेता के इलाके में एक जलसा है और उसमें कुछ गायकों और गायिकाओं को बुलाया गया है. कुछ को सम्मानित करने के लिए और कुछ को गाने के लिए. इनमें एक गायिका चंपा बाई है और दूसरी है बेनी बाई. चंपा बाई नौंटंकी की गायिका रही है और बेनी बाई ऐसी तवायफ जो शास्त्रीय-उपशास्त्रीय संगीत गाती रही है. इस कार्यक्रम में इन दोंनों को गाना नहीं है. उनका सिर्फ सम्मान होना है. चंपा बाई गाना चाहती है लेकिन अधिकारी उसे रोकता है और कहता है कि पुराने दौर के लोक कलाकारों को यहां के गाने लिए नहीं बुलाया है, उनका सिर्फ सम्मान होगा और पैसे भी मिलेंगे. बेनी बाई खुद गाना नहीं चाहती क्योंकि उसने नहीं गाने की कसम बरसों पहले लेली थी.
गाने के लिए बाहर से एक गायिका मौसमी और एक गायक कबीर को बुलाया गया है. ये आधुनिक संगीतकार हैं. लेकिन कबीर के साथ मुश्किल यह पैदा हो गई है कि उसका गाना पड़ोसी मुल्क से है (पाकिस्तान का नाम नहीं लिया गया है लेकिन संकेत उसी तरफ है) और इस कारण सोशल मीडिया में उसके विरुद्ध मुहिम चल पड़ी है. अब अगर वो गाए तो प्रशासन का चैन छिन जाएगा और हंगामा भी हो सकता है. पर कबीर इसको लेकर ज्यादा परेशान नहीं है. वह नहीं गाने का दोगुना पारिश्रमिक मांगता है और ना-नुकुर के बाद प्रशासन इसके लिए तैयार हो जाता है. मौसमी के साथ कठिनाई यह है उसके गाने का ट्रैक सामान के साथ नहीं आ पाया है. इसलिए वो गा नहीं सकती. कुछ आधुनिक और लोकप्रिय गायक (या गायिका) बिना ट्रैक के गा नहीं पाते. ऐसे में कार्यक्रम कैसे हो? प्रशासन मुश्किल में है. इसी मसले पर पूरा नाटक केंद्रित है.
मंच पर: अनुभव फतेहपुरिया, हर्ष खुराना, हितेश भोजराज, निवेदिता भार्गव, राजीव कुमार, मोनिका गुप्ता, श्वेता देशपांडे, कृति सक्सेना, यश खान, वरूण गुप्ता, शीतल शर्मा।
मंच परे: निर्देशक और लेखन – पूर्वा नरेश, संगीत – शुभा मुद्गल, लाइट – अस्मित पठारे, हारमोनियम – पूरब जगत, तबला एवं ढोलक – वरूण गुप्ता, सेट – मनीष कंसारा, शोध – शुभा मुद्गल, अनीश प्रधान, अतुल तिवारी, प्रियंवदा।
हबीब तनवीर के गीतों की सांगीतिक प्रस्तुति
शाम की सांस्कृतिक गतिविधियों की शुरुआत पूर्व रंग में रंग संगीत से हुई जिसकी प्रस्तुति नया थिएटर समूह के धन्नूलाल सिन्हा और उनके साथियों द्वारा दी गई। इसमें हबीब तनवीर के चर्चित नाटकों के गीतों को पारंपरिक धुनों और लोक संगीत में पिरोकर सांगीतिक अंदाज में पेश किया गया। शुरुआत चरणदास चोर फिल्म के गीत “आमा के डारा लहसानी सुआ बन के आजा, मैना बन के आजा…” की प्रस्तुति से हुई। इसके बाद उन्होंने ठेहलाराम नाटक का “बताओ गुमनामी अच्छी है या अच्छी है नामवरी…”, बहादुर कलारिन नाटक के गीत “संझा बेरा जावो घुमेला डोमरी, आईसन सपना सपनाएं हो जोड़ी…”, चरणदास चोर नाटक का “देख तू बहनी आवत हारे चोर…” गीत को पेश किया। कार्यक्रम को आगे बढ़ाते हुए उन्होंने नाटक देख रहे नैन के गीत “दुनिया में नई है राजा हमर असन सुखियार…” को छोटा नागपुर की धुन में प्रस्तुति दी। इसके बाद हिरमा की अमर कहानी नाटक के “जगत में मनसे दू प्रकार, एक निर्धन एक धनवान जगत में मनसे दू प्रकार…” की सांगीतिक प्रस्तुति दी। इस दौरान धन्नुलाल सिन्हा के साथ सह गायक राम चंद्र सिंह, मुख्य गायिका संगीता सिन्हा और पारुल सिंह, हारमोनियम पर अमर सिंह गंधर्व, तबला पर राम शरण वैष्ठव, ढोलक पर विनोद टेकाम, मंजीरा पर मनहरन गंधर्व, कोरस में प्रियंवदा सिन्हा, पायल सिंह, शीतल घुघे, राधिका गंधर्व, सतीश व्याम, नीरज श्याम, अनमोल श्याम, अंगद, फरोज, खिलना सिन्हा बतौर सहायक रहे।
कला समीक्षा है एक आंतरिक संवाद
कला एवं साहित्य के अन्तर्राष्ट्रीय उत्सव ‘विश्वरंग’ में ‘कला महोत्सव’ के तीसरे दिन का आगाज़ ‘कला समीक्षा की चुनौतियाँ’ सत्र से हुआ। सत्र में विख्यात कला समीक्षक एवं कवि प्रयाग शुक्ल, फिल्म एवं कला समीक्षक विनोद भारद्वाज, फिल्म निर्माता-निर्देशक, समीक्षक सुदीप सोहनी, मशहूर चित्रकार अशोक भौमिक मौजूद थे। सत्र की अध्यक्षता प्रसिद्ध फिल्म और थिएटर समीक्षक, वरिष्ठ प्रिंट और टीवी पत्रकार एवं सांस्कृतिक आलोचक रवीन्द्र त्रिपाठी ने की। अपने बीज वक्तव्य में त्रिपाठी सबसे पहले तो कला समीक्षा की ज़रूरतों पर सबका ध्यान केन्द्रित किया। उन्होंने कहा कि कला पर भावुक होकर लिखना बहुत आवश्यक है। कलाकार और समीक्षकों का आपसी संवाद भी होना ज़रूरी है। बातचीत को आगे बढाते हुए प्रयाग शुक्ल ने कहा कि कला समीक्षा दरअसल एक आंतरिक संवाद है। यह भी कहा कि समीक्षकों को सभी कला विधाओं में रूचि रखनी होगी। सोहनी ने फिल्म समीक्षा पर बात की और कहा कि अन्तत: हर कला कविता है। अशोक भौमिक के विचारों से सत्र की संजीदगी थोड़ी और बढ़ी। उन्होंने कहा कि हमारी परम्परा में देखना शामिल है ही नहीं, पूरी परम्परा आँख बंद करके देखने की परम्परा है। उन्होंने चित्रकला पर केन्द्रित होकर अपनी बातें कहीं, यह भी कहा कि कला को समझने की नहीं अनुभव करने की आवश्यकता है वैसे ही जैसे आप ढलते हुए सूरज को देख कर उसका आनंद लेते हैं, उसे अनुभव करते हैं, उसे समझने की कोशिश नहीं करते। सत्र के अंत में रबीन्द्रनाथ टैगौर विश्व विद्यालय के कुलाधिपति, साहित्य-संस्कृति कर्मी श्री सन्तोष चौबे ने समीक्षा और टेक्नोलॉजी की भूमिका पर भी बात रखी और यह भी कहा कि कला कृतियों को उनके सन्दर्भों से अलग नहीं किया जा सकता।
संगतकारों की अलक्षित भूमिका पर सत्र
विश्वरंग के विचार सत्रों में एक अहम कड़ी जुड़ी “संगतकारों की अलक्षित भूमिका” की। इस संवाद सत्र में प्रख्यात तबला वादक पद्मश्री पंडित विजय घाटे, कथक नृत्यांग्ना और कोरियोग्राफर शमा भाटे, कला लेखिका चित्रा शर्मा और कला समीक्षक विनय उपाध्याय ने अपने विचार व्यक्त किए। इस अवसर पर कथक में तबले की लयकारी और नृत्य से उसके रचनात्मक संयोग पर प्रदर्शन के माध्यम से प्रकाश डाला गया। विनय उपाध्याय ने कहा कि संगीत और नृत्य में संगत की आनिवार्य उपस्थिति है। लेकिन संगतकारों की अहमियत को ठीक से देखा जाना आवश्यक है। चित्रा शर्मा ने कथक की उन संरचनाओं को उद्धत किया जिनमें लय ताल का विशेष महत्व है। पंडित विजय घाटे ने अपनी ताल यात्रा के विभिन्न पक्षों पर प्रकाश डाला और संगतकारी के पक्ष में अपने अनुभव भी साझा किए। इस सत्र में चित्रा शर्मा की कथक पर केंद्रित पुस्तक का लोकार्पण भी किया गया।
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