मध्य प्रदेश को आज रिटायर्ड आर्मी केप्टन डॉ. मुनीश्वर डॉवर और झाबुआ की हस्तशिल्प कलाकार दंपति रमेश-शांति परमार ने गौरवांवित होने का मौका दिया है। एमपी की शान डॉवर व परमार दंपत्ति को आज दिल्ली में राष्ट्रपति भवन में पद्मश्री अलंकरण समारोह में राष्ट्रपति श्रीमती द्रौपदी मुर्मू ने सम्मानित किया। जानिये कौन हैं डॉ. डावर और परमार दंपत्ति।
जबलपुर के डॉक्टर मुनीश्वर डावर आज के पाकिस्तान के पंजाब प्रांत के मोंटगोमरी जिले में 16 जनवरी 1946 को जन्मे और 1947 में भारत विभाजन के समय वे भारत के पंजाब के जालंधन में बस गए थे। उन्होंने जालंधर में स्कूलिंग और वहीं प्री मेडिकल किया। बाद में वे तब के गवर्नमेंट मेडिकल कॉलेज जबलपुर जो आज नेताजी सुभाषचंद्र बोस चिकित्सा महाविद्यालय के नाम से जाना जाता है, से एमबीबीएस किया। वे भारतीय सेना में केप्टन के रूप में भर्ती हुए थे और 1971 के भारत-पाक युद्ध में सेवाएं भी दी थीं। उन्हें पूर्वी स्टार मेडल 1971, संग्राम मेडल 1971 व भारतीय स्वतंत्रता के 25 साल पूरे होने पर भी मेडल मिला था लेकिन स्वास्थ्य कारणों से समय से पहले रिटायरमेंट ले लिया।
दो रुपए में 1972 से लोगों का इलाज शुरु किया, आज फीस 20 रुपए ले रहे डॉ. मुनीश्वर चंदर डावर ऐसे चिकित्सक हैं जो 1972 से लगातार लोगों की सेवा कर रहे हैं। वे इलाज के बदले मरीजों से केवल दो रुपए फीस लेते रहे जिसे उन्होंने 1986 में तीन रुपए, 1997 में पांच रुपए, 2012 में 10 रुपए और 2021 में प्रेक्टिस के 49 साल पूरे करने पर फीस दो 20 रुपए किया। उनके पास सस्ता इलाज मिलने के कारण जबलपुर शहर ही नहीं आसपास के ग्रामीण क्षेत्र से भी बड़ी संख्या में मरीज आते हैं। कई सम्मान से सम्मानित डावर डॉ. डावर को कई पुरस्कार से सम्मानित किया गया है जिनमें 1994 में टीएन शेषन (तत्कालीन भारत के मुख्य चुनाव आयुक्त) द्वारा ‘जन शक्ति सम्मान’ दिया गया तो वर्ष 2009 में ‘चिकित्सा रत्न जबलपुर’ मिला। 2009 में ही मध्य प्रदेश स्टेट इंडियन मेडिकल एसोसिएशन ने उन्हें सामाजिक सेवा के लिए डॉ. एस. के. मुखर्जी (पद्मभूषण प्राप्तकर्ता) स्वर्ण पदक से सम्मानित किया। उन्हें उनकी नि:स्वार्थ सेवा के लिए 40 से अधिक संस्थानों द्वारा सम्मानित किया गया है।
परमार दंपत्ति 30 साल से पारंपरिक कला में दे रहे समय झाबुआ के रमेश और उनकी पत्नी शांति परमार प्रसिद्ध हस्तशिल्प कलाकार हैं। दोनों पिछले 30 वर्ष से जनजातीय गुड़िया, पारंपरिक जनजातीय पोशाक और जनजातीय खिलौनों के निर्माण में लगे हैं। उन्होंने भारत के 100 से ज्यादा राष्ट्रीय और राज्य स्तरीय हस्तशिल्प मेलों में भाग लिया और इस जनजातीय उत्पाद को क्षेत्र की पहचान के रूप में स्थापित किया है। 1981 में रमेश का शांति से शादी हुई। वे अनुसूचित जाति के हैं और जनजातीय अंचल में पले-बढ़े होने के कारण शुरू से ही उनकी जनजातीय परंपराओं के प्रति झुकाव रहा।
विपरीत परिस्थितियों के बावजूद हार नहीं मानी झाबुआ जैसे पिछड़े इलाके में रहने के कारण इस काम के लिए कच्चा माल तक लाने के लिए पड़ोसी राज्य गुजरात पर निर्भर रहना पड़ता था लेकिन दंपति ने हार नहीं मानी और कई बाधाओं के बावजूद उन्हें झाबुआ कलेक्टर से जिला स्तरीय पुरस्कार मिला। इससे उनके सपनों को नए पंख मिले और इसके बाद उन्होंने पीछे मुड़कर नहीं देखा। उन्होंने महसूस किया कि जीवनयापन के लिए इस कला को संरक्षित नहीं किया जा सकता, इसलिए इस कला को जन-जन में लोकप्रिय बनाने के लिए अन्य युवाओं को इसमें शामिल किया जाना चाहिए। इसके लिए उन्होंने इस कला का प्रशिक्षण देना शुरू किया। अपने लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए उन्होंने मृतप्राय प्रशिक्षित औद्योगिक कामगार समिति को फिर से शुरू किया और इसके जरिये जिले भर में विभिन्न स्थानों पर प्रशिक्षण शिविर आयोजित करना शुरू किया। अब तक वे ऐसे 1000 से अधिक युवा कारीगरों को प्रशिक्षित कर चुके हैं। वे सभी इस कला में दक्ष हैं और इस कला से अपनी आजीविका कमा रहे हैं।
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