चार साल में 40 बाघों की मौत के बाद भी न डिगे न हिम्मत हारी, रचा इतिहास

मध्य प्रदेश के वन विभाग ने बाघों की मौतों की वजह से जितनी आलोचना झेली, उससे कदम डगमगा सकते थे लेकिन हिम्मत के साथ वन विभाग के अधिकारियों व कर्मचारियों ने वन्यप्राणी संरक्षण की दिशा में काम किया। जंगलों पर आश्रित लोगों व आसपास के रहवासी इलाकों में भी वन्यप्राणी के प्रति संवेदनशीलता का माहौल बना और इन सब प्रयासों से मध्य प्रदेश एकबार फिर टाइगर स्टेट बन गया। टाइगर स्टेट वाले पहले व दूसरे स्थान के बीच काफी अंतर के साथ एमपी नंबर वन पर कायम है। पढ़िये वरिष्ठ पत्रकार गणेश पांडेय की विशेष रिपोर्ट।

केंद्र सरकार ने बाघ गणना के आंकड़े जारी कर दिए हैं। मध्य प्रदेश 785 बाघों के साथ अव्वल रहा है। इस तरह मध्य प्रदेश ने अपना टाइगर स्टेट का दर्जा कायम रखा है। दूसरे स्थान पर कर्नाटक है, जहां 563 बाघ हैं, जबकि उत्तराखंड में 560 और महाराष्ट्र में 444 बाघ मिले हैं। प्रदेश तीसरी बार टाइगर स्टेट बना है।
दूसरी बार नंबर वन पर पहुंचाने वाले अफसर हाशिये पर
यह पहला मौका है, जब लगातार दूसरी बार मध्यप्रदेश ने यह उपलब्धि हासिल की है। सबसे पहले 2006 में हुई पहली गणना में मध्य प्रदेश को टाइगर स्टेट घोषित किया गया था। इस ऐतिहासिक कीर्तिमान रचने के लिए मुख्यालय से लेकर फील्ड में तैनात बीट गार्ड तक को हार्दिक बधाई। अफसोस इस बात का भी है कि जिसके नेतृत्व में कीर्तिमान स्थापित किया गया, उस शख्स को हाशिये पर धकेल दिया गया। वह भी तब जब रिटायरमेंट के कुछ ही महीने शेष बचे थे।
2018 का अंतर बढ़ाने के हर वनकर्मी के प्रयास
बधाई के पात्र इसलिए भी है कि 2018 और अब 2022 के दौरान भी मप्र के हरेक वन कर्मी ने अपनी ओर से बेहतर से बेहतर प्रयास करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। वर्ष 2018 पहले कई वर्षों तक प्रबंधन हेतु किए गए प्रयासों से ही वर्ष 2017 -2018 में किए गए आकलन के बाद मप्र टाइगर स्टेट बन गया लेकिन उसके बाद के 4 वर्ष बहुत कठिन थे। द्वितीय स्थान पर आए कर्नाटक के बाघों के संख्या में केवल 2 का अंतर था। यानि मप्र 526 और कर्नाटक में 524 टाइगर। यानी मप्र में हर बाघ की मृत्यु की सूचना के साथ ही हमारे सरीखे पत्रकार अखबारों में वन्य प्राणी प्रबंधन में जुटे अफसरों एवं कर्मचारियों की आलोचनाएं करने लगते थे। समाचार पत्रों पत्रों में एक हेडिंग सुर्ख़ियों में हुआ करती थी कि अगली बार निःसंदेह मप्र के बाघ स्टेट का तमगा छिन जाएगा। फिर एक नहीं, दो नहीं , तीन नहीं, बल्कि पिछले 4 सालों में हर वर्ष मप्र में लगभग 30 से 40 बाघों की मृत्यु दर्ज हुई। दाद तो वन विभाग के अफसरों को देना होगी, क्योंकि आलोचना के बाद भी वे न डिगे और न हिम्मत हारी। अपने मिशन में लगे रहे। वन्य प्राणी के कार्य में जुटे अफसरों को यह भली-भांति पता था कि जब प्रदेश में सबसे अधिक बाघ थे तो बाघों के मरने में भी सबसे अधिक होना कोई खास गलत तो नहीं था। फिर इन मृत बाघो में अधिकांश वे थे जो बाघों की क्षेत्रीयता की लड़ाई में मारे गए थे, जो कि एक सहज स्वाभाविक प्रक्रिया है। इसके अलावा कुछ बाघों की मृत्यु करंट लगने से, रेल और ट्रेन दुर्घटना में भी हुई थी। यह ऐसी परिस्थितियां है जिसे रोकने में किसी वन्यप्राणी प्रबंधक की भूमिका अत्यंत गौण हो जाती है, लेकिन फिर भी , चाहे ट्रेन दुर्घटना या करंट से किसी बाघ की मृत्यु हुई हो या फिर वह आपस में लड़ते हुए ही मार दिए गए हो, हर एक बाघ मृत्यु को प्रदेश में वन्यप्राणी प्रबंधन की असफलता घोषित कर दिया गया।
हर बाघ की मौत पर और मुस्तैदी से काम
मैदानी वनकर्मी वन्य प्राणियों की सुरक्षा तथा वन्य प्राणी प्रबंधन के समस्त दायित्वों के साथ-साथ जंगल का चप्पा-चप्पा छान हरेक बाघ मृत्यु की सूचना अपने वरिष्ठ अधिकारियों को देने में मुस्तैदी से देने कार्य करते रहे। यदि यह मृत्यु प्रबंधकीय चूक के कारण हो अथवा शिकार के कारण तो ऐसी घटना की पुनरावृत्ति न हो सके, यह सुनिश्चित करना कोई आसान काम नहीं था। बावजूद इसके, बाघों की मौत पर न आलोचनाएं कम हुई और न ही लानते कम हुईं। लेकिन शनिवार को वह दिन आ गया है जब फिर से हम न केवल टाइगर स्टेट का दर्जा बरकरार करने में सफल रहे, बल्कि 785 टाइगर की संख्या बढ़ाकर एक कीर्तिमान स्थापित कर दिया। बाघों की संख्या का आकलन प्रबंधकीय प्रयासों की दिशा और गुणवत्ता का थर्मामीटर है और आज थर्मामीटर में दिख गया कि हमारे प्रबंधन की गुणवत्ता और दिशा कैसी है ? वन्य प्राणी शाखा के अफसरों और कर्मचारियों ने राज्य सरकार और वन्य प्रेमियों और प्रदेश की जनता को गौरव और हर्ष का अनुभव कराया।

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