प्रदेश की राजनीति में ऐसा पहली बार हुआ जब विधानसभा उपाध्यक्ष का पद 3 साल से भरा नहीं जा सका।
ऐसा सत्तारूढ़ दल और विपक्ष के बीच राजनीतिक सौहार्द नहीं होने की वजह से हुआ। अब यह भरा भी नहीं जायेगा, क्योंकि अगले माह विधानसभा आम चुनाव की आचार संहिता लग जायेगी। वर्ष 1956 में मप्र के गठन के बाद से विधानसभा में उपाध्यक्ष का पद विपक्ष को न देने की आम परम्परा थी। हालांकि नर्मदा प्रसाद श्रीवास्तव पहली बार विरोधी दल की ओर से वर्ष 1962 में उपाध्यक्ष चुने गये। वर्ष 1964 में भी वे पुनः उपाध्यक्ष बने, परन्तु इसके बाद 3 मार्च 1990 तक किसी विपक्षी विधायक को उपाध्यक्ष का पद नहीं दिया गया। पढ़िये वरिष्ठ पत्रकार गणेश पांडेय की रिपोर्ट।
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