मध्य प्रदेश के महाकौशल क्षेत्र में आठ जिले हैं जिनमें 38 विधानसभा सीटें किसी भी राजनीतिक पार्टी के लिए सत्ता की कुर्सी तक पहुंचने का रास्ता साबित होती हैं। कांग्रेस पिछले चुनाव में इसी के बल पर कमलनाथ सरकार बनाने में सफल रही थी लेकिन इस बार भाजपा ने यहां आदिवासी कार्ड खेला है। आईए आपको बताते हैं महाकौशल के राजनीतिक समीकरण क्या हैं।
महाकौशल में 38 विधानसभा सीटों में 11 आदिवासी समाज की हैं तो तीन अनुसूचित जाति की हैं और शेष 24 सीटें सामान्य वर्ग की हैं। भाजपा ने 2018 में 13 विधानसभा सीटें जीतती थीं जिनमें से 12 सीटें सामान्य वर्ग की ही थीं और उसने मंडला एकमात्र आदिवासी समाज की सीट पर जीत हासिल की थी। वहीं, कांग्रेस ने जो 24 सीटें जीतती थीं, उनमें 10 सीटें अनुसूचित जनजाति की थीं। यानी महाकौशल में 11 आदिवासी समाज की सीटों में से 10 कांग्रेस ने जीतकर अनुसूचित जनजाति का ज्यादा विश्वास हासिल किया था।
भाजपा ने आदिवासी कार्ड खेला
महाकौशल में आदिवासी समाज का समर्थन नहीं मिलने के बाद से ही भाजपा वहां इस वर्ग को लुभाने में जुटी है। केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह का फोकस यहां आदिवासी समाज पर है और इसको लेकर वे यहां शंकर शाह-रघुनाथ शाह को श्रद्धांजलि देने और उनकी याद को चिरस्थायी बनाने के लिए कार्यक्रमों में शामिल हो चुके हैं। आदिवासी समाज के इन पिता-पुत्र की स्टैच्यू से लेकर उनकी गिरफ्तारी वाले बंदीगृह को भी राज्य सरकार ने संवारा है। छिंदवाड़ा-डिंडौरी में भी आदिवासी समाज के इन बलिदानियों की याद में सरकार ने काम किए हैं।
16 सीटों पर कांग्रेस की बढ़त पर आशंका के बादल
महाकौशल की 16 ऐसी सीटें हैं जिन पर आज की स्थिति में कांग्रेस की बढ़त है लेकिन इन पर आशंका के बादल मंडरा रहे हैं। इन सीटों में कटनी की मुडवारा, जबलपुर की जबलपुर पूर्व, जबलपुर उत्तर, जबलपुर कैंट, पनागर, , सीहोरा, मंडला की बिछिया, निवास, मंडला, बालाघाट की बैहर, लांजी, परसवाड़ा, बालाघाट, सिवनी की सिवनी और छिंदवाड़ा की सौंसर सीटें फंसी हुई बताई जा रही हैं।
क्या है 16 सीटों का समीकरण
मुडवारा विधानसभा सीट पर पिछले छह विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को केवल एक ही बार सफलता मिली है जिससे यह सीट कांग्रेस के लिए महाकौशल की सबसे कमजोर तो भाजपा के लिए सबसे सुरक्षित सीट मानी जाती है। जबलपुर की आठ विधानसभा सीटों में से जबलपुर कैंट सीट भाजपा की सबसे सुरक्षित सीट बन चुकी है क्योंकि छह चुनाव में से एक भी चुनाव कांग्रेस के खाते में नहीं गया है। बालाघाट की बालाघाट विधानसभा सीट कांग्रेस के लिए कमजोर प्रदर्शन वाली है तो सिवनी में सिवनी विधानसभा सीट की स्थिति कांग्रेस के लिए बनी चुकी है। मगर सिवनी की जो केवलारी सीट कांग्रेस के लिए सुरक्षित थी, वह हरवंश सिंह के निधन के बाद सहानुभूति लहर में कांग्रेस जीती लेकिन अगले चुनाव में उनके बेटे जीत नहीं सके। वैसे जबलपुर जिले की पांच सीटों पर कांग्रेस का प्रदर्शन पिछले छह विधानसभा चुनाव में कमजोर रहा है तो भाजपा ने इन सीटों पर मजबूत पकड़ बना रखी है। जबलपुर पूर्व सीट पर कांग्रेस छह में से चार चुनाव हारी है तो जबलपुर उत्तर में 2018 में ही जीत नसीब हुई है और वह भी केवल करीब सात सौ वोट से जीती है। पनागर और सीहोरा विधानसभा सीट भी कांग्रेस 1990 के बाद से 2018 तक केवल एक-एक बार ही जीती है। मंडला की बिछिया, निवास और मंडला विधानसभा सीटों पर भाजपा-कांग्रेस तीन-तीन या चार-दो बार ही चुनाव जीते हैं जिससे इन सीटों पर दोनों पार्टियों की हार-जीत में प्रत्याशी चयन बहुत महत्व रखने लगा है। छिंदवाड़ा जिले की सात विधानसभा सीटों पर कांग्रेस 2003 के पहले तक जिस तरह क्लीन स्विप करती रही थी, वह स्थिति 2018 में ही बनी। मगर 2003-2008-2013 के चुनाव में भाजपा ने यहां कांग्रेस 2013 में खाता नहीं खोलने दिया तो बाद के दो चुनाव में चार-चार सीटें जीतकर सेंध लगा दी थी।
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