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सर्वोच्च न्यायालय की ‘मास्टर ऑफ द रोस्टर’ व्यवस्था पर पब्लिक लेक्चर
स्वामी विवेकानंद लाइब्रेरी की मासिक व्याख्यान श्रंखला में आज सुप्रीम कोर्ट में अभी हाल में चले रहे ‘मास्टर ऑफ द रोस्टर’ विवाद पर चर्चा हुई । पूर्व जिला न्यायाधीश ओपी सुनरया ने कहा देश की 130 करोड़ जनता जिस न्यायिक सुधार पर एकमत थी उसे 5 जजेस ने गलत ठहरा दिया । और ये वो जजेस हैं जिन्हें किसी ने चुना नहीं है, जो किसी योग्यता या क्षमता परीक्षण से नहीं गुजरे हैं । पर हमारी न्यायपालिका ने उन्हे ताकत दी है कि वे देश की जनता द्वारा एकमत से किए गए निर्णय को एक मिनिट में पलट दें ।
प्रज्ञा प्रवाह के सहयोग से आयोजित इस व्याख्यान में मुख्य वक्ता पूर्व जिला न्यायाधीश ओपी सुनरया थे। कार्यक्रम की अध्यक्षता मध्यप्रदेश लोक सेवा आयोग के पूर्व अध्यक्ष श्री अशोक पाण्डेय जी ने की ।
कार्यक्रम में सुनरया ने क्या कहा
- एक लॉं स्टूडेंट के तौर पर मैं ये नहीं समझ पाता था कि “हमारी न्यायपालिका इतनी सक्षम क्यों नहीं है” क्या न्यायपालिका में सक्षम लोगों की कमी है या व्यवस्था में ही कोई दोष है ? इसी बात को समझने के लिए तीन दशक पहले न्यायपालिका जॉइन की थी
- आप जानना चाहते हैं कि हमारी न्यायपालिका में क्या दोष है तो ज्यादा पीछे जाने की जरूरत नहीं है आप बस 3 साल पहले का “न्यायिक नियुक्ति आयोग” से जुड़ा विवाद देख लीजिये ।
- आपने कभी सोचा कि हमारी न्यायपालिका के पास कितनी अपार शक्ति है
- सुप्रीम कोर्ट का हालिया विवाद असल में देश के सामने एक अवसर है न्यायपालिका में चल रही गड़बड़ी को सुधारने का ।
- याद रखिए ये गड़बड़ियाँ आज कल में शुरू नहीं हैं , आज़ादी के बाद से लगातार न्यायपालिका के भीतर गंभीर गडबड़ियाँ चल रहीं थी पर इस देश के लोगों को न्यपालिका में इतनी श्रद्धा है कि कोई कभी न्यायपालिका पर सवाल खड़े नहीं करता
- भारत के पहले विधि आयोग की रिपोर्ट में एम सी शीतलवाड़ ने पचास के दशक में ही यह कह दिया था कि न्यपालिका में नियुक्ति प्रक्रिया आमें भारी खामी है ज़्यादातर नियुक्तियाँ योग्यता की वजाय राजनैतिक व व्यक्तिगत संपर्को के आधार पर की जा रही हैं
- भारत की वर्तमान दंड व्यवस्था में गंभीर दोष हैं और इन दोषों का मूल कारण है दोषपूर्ण नियुक्ति प्रक्रिया ।
- भीष्म पितामह ने मृत्युशय्या पर लेटे हुए कहा था कि एक राजा का सबसे बड़ा कार्य है “न्याय निष्ठा/दंड नीति का शुद्ध प्रवर्तन” । दुर्भाग्य से आज़ादी से अब तक हमारे राजनेताओं ने इस ओर कोई ध्यान ही नहीं दिया , शायद वे यह समझने की क्षमता ही नहीं रखते थे कि न्यायपालिका में क्या गंभीर गडबड़ियाँ चल रहीं हैं
- कई लोगों का मानना है कि देश में जजेस की संख्या कम है इसलिए न्याय व्यवस्था सुचारु रूप से नहीं चल पा रही है , पर मेरा मानना है कि न्यायधीशों की संख्या बढ़ा देने से भी कोई सुधार नहीं होने वाला । क्योंकि समस्या कुछ और है
- आज हमारी अदालतों में बस केस निपटते हैं न्याय नहीं होता
- आप खुद बताइये ऐसा क्यों है कि ” एक ही साक्ष्य और एक ही कानून के आधार पर कोई अदालत किसी को दोषी मानती है तो दूसरी अदालत उसे बरी कर देती है”
- हमारे देश में हर साल लाखों केसेस में आरोपी बरी हो जाते हैं जबकि जांच एजेंसियों ने उनको सबूतों के आधार पर दोषी माना था , जापान में साल भर में मुश्किल से 6 ऐसे केस होते हैं जिनमे जांच एजेंसी द्वारा दोषी ठहराया गया व्यक्ति बरी हो जाए। पर हमारे न्यायालयों में ऐसे वाकये रोज़ हो रहे हैं
- हमें अपने न्यायालयों पर गुस्सा क्यों नहीं आता
- भारत में सुप्रीम कोर्ट ने कई ऐसे अधिकार जबर्दस्ती ले लिए हैं जो उसे संविधान ने दिये ही नहीं थे
- भारतीय संविधान को भी सुप्रीम कोर्ट ने पिछले 70 सालों में बुरी तरह से विकृत कर दिया है , आप खुद बताइये संविधान ने सर्वोच्च न्यायालय को संविधान बदलने का अधिकार कहाँ दिया था पर सुप्रीम कोर्ट हर दिन संविधान के साथ छेड़छाड़ कर रहा है
- सर्वोच्च न्यायालय ने केशवानन्द भर्ती केस में कहा था कि कभी भी संविधान के मूल ढांचे से छेड़छाड़ नहीं की जानी चाहिए, पर अब देखिये सर्वोच्च न्यायालय खुद यही कर रहा है , वह देश के लोकतन्त्र से छेदछाड़ कर रहा है, देश की जनता की अनदेखी कर रहा है
- सुप्रीम कोर्ट ने हमारे क़ानूनों को इतना जटिल बना दिया है कि उन्हें समझना आम आदमी के बस की बात ही नहीं है , और फिर वह हमसे उम्मीद करता है कि हम कानून का पालन करें
अशोक कुमार पाण्डेय ने कहा
- एक न्यायाधीश में ये तीन गुण होना बेहद जरूरी है – मजबूती, निष्पक्षता और निर्भीकता
- संविधान में निष्पक्षता के लिए चेक -एंड -बैलेंस की व्यवस्था बनाई गयी है
- इसलिए न्यायपालिका और कार्यपालिका के बीच 1951 से ही संघर्ष चल रहा है
- न्यायिक नियुक्ति आयोग को रद्द करते समय सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि इससे उनकी सर्वोच्चता और निष्पक्षता प्रभावित होगी , पर उनसे किसी ने पूंछा कि 1950 से 1993 तक सुप्रीम कोर्ट में नियुक्त हुए जज क्या बेईमान थे
- देश में पहले भी सभी महत्वपूर्ण केसेस जूनियर जजेस को ही दिये जाते रहे हैं इसलिए हालिया विवाद का कोई मतलब ही नहीं है
- बस इन चार न्यायाधीशों ने मीडिया के बीच जाकर एक गलत उदाहरण पेश कर दिया है जिसका दुरुपयोग अब देश भर के जजेस करने लगेंगे
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